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खुलेगी इस नज़र पे...



खुलेगी इस नज़र पे...

खुलेगी इस नज़र पे चश्म-ए-तर आहिस्ता आहिस्ता;
किया जाता है पानी में सफ़र आहिस्ता आहिस्ता;

कोई ज़ंजीर फिर वापस वहीं पर ले के आती है;
कठिन हो राह तो छूटता है घर आहिस्ता आहिस्ता;

बदल देना है रास्ता या कहीं पर बैठ जाना है;
कि थकता जा रहा है हमसफ़र आहिस्ता आहिस्ता;

ख़लिश के साथ इस दिल से न मेरी जाँ निकल जाये;
खिंचे तीर-ए-शनासाई मगर आहिस्ता आहिस्ता;

मेरी शोला-मिज़ाजी को वो जंगल कैसे रास आये;
हवा भी साँस लेती हो जिधर आहिस्ता आहिस्ता।


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